होमकार्तवीर्य कथाहैहय वंशावली परिचय “हैहय-कथा” का पहला भाग

हैहय वंशावली परिचय “हैहय-कथा” का पहला भाग

-

हैहय वंशावली परिचय

सुनिए हैहय वंशावली परिचय भाग एक

हैहय वंशावली परिचय:

हैहयराज कार्तृवीर्य सहस्रार्जुन, सोमवंशीय क्षत्रिय थे। उनका जन्म अत्रि मुनि के कुल में हुआ था। इस वंश में राजा नहुष और ययाति जैसे महान पराक्रमी, कलाप्रेमी, धर्मात्मा, तपस्वी और लोक-हितकारी राजा हुए थे, महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र थे| ‘श्रीमद्भागवत’ के चतुर्थ स्कन्ध के प्रथम अध्याय में लिखा है कि स्वयंभू मनु (ब्रह्मा) ने अपनी पुत्री का विवाह रुचि प्रजापति से किया था, उसी के गर्भ से अत्रि मुनि का जन्म हुआ था। 

ब्रह्मा ने अत्रि मुनि से सृष्टि का विकास करने के लिए कहा। तब अत्रि मुनि ने ‘ब्रह्मा’, विष्णु और ‘महेश’ की आराधना की, और उनसे प्राप्त वरदान के द्वारा विष्णु से ‘दत्तात्रेय’, ब्रह्मा से ‘चन्द्र’ और महेश्वर से ‘दुर्वासा’ नामक पुत्रों का जन्म हुआ।

तीनों पुत्रों को पाकर मुनि पत्नी अनुसूया अत्यन्त प्रसन्न हुईं। इन्हीं से आगे का वंश चला, किन्तु ‘विष्णु पुराण’ के अंश 4, अध्याय 6, श्लोक संख्या 3 और 4 में सोमवंश का वर्णन महर्षि पराशर ने इस प्रकार लिखा है-

“श्रूयता मुनिशार्दूल वंश प्रथित तेजसः सोमस्यानु।
कृमात्ख्याता यत्रोर्वीयपतोभवन ॥। 3 ॥
अयं हि वशतिवल पराक्रम द्युतिशील चेष्टा वाभ्ररति गुणान्वितैर्नहुषययाति । 
कार्तवीर्यार्जुनादि मिर्भूपालैश्लगुणान्वितैर्नकृतस्तम
कथयामि श्रूयताम ॥ 4॥” – (विष्णु पुराण 4/6/3-4) 

अर्थात् हे मुनि, शार्दूल के समान परम तेजस्वी चन्द्रमा के वंश को सुनो, जिसमें अनेक विख्यात राजा हुए हैं। यह वंश, नहुष, ययाति, कार्तवीर्यार्जुन आदि अनेक अतिबली, पराक्रमशील, कान्तिमान, क्रियावान और सद्गुण सम्पन्न राजाओं से अलंकृत हुआ है, मैं उसका वर्णन करता हूँ।

चन्द्रवंश का अभ्युदय 

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार, ‘सहस्रार्जुन का सोम-वंश चन्द्रमा से प्रारम्भ होता है| चन्द्रमा का पुत्र ‘बुध’ था, बुध ने सूर्यवंशी ‘इला’ से विवाह किया | इला और बुध को ‘पुरूरवा’ नामक पुत्र प्राप्त हुआ, यह बालक रूप और गुण में अत्यन्त मेधावी था। स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी से इसका प्रेम था। उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा को छह पुत्र प्राप्त हुए  ‘आयु’, ‘अमावसु’, ‘विश्वावसु’, ‘श्रुतायु’ और ‘अयुतायु’ ।

आयु का विवाह राहु की कन्या के साथ हुआ था। उससे आयु को पाँच पुत्र प्राप्त हुए – ‘नहुष’, ‘क्षत्रवृद्ध’, ‘दम्भ’, ‘रजि’ और ‘अनेना’ । आयु के प्रथम पुत्र नहुष के छह पुत्र हुए – ‘याति’, ‘ययाति’, ‘संयति, ‘अयाति’, ‘वियाति’ और ‘कृति’ । 

नहुष के दूसरे पुत्र ययाति ने असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से और असुर राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया था। देवयानी से ‘यदु’ और ‘तर्वसु’ दो पुत्र हुए और शर्मिष्ठा से ‘द्रह्यु’, ‘अनु’ और ‘पुरु’ तीन पुत्र हुए

चन्द्रवंश की इस परम्परा में जो अन्य महत्त्वपूर्ण पुत्र हुए| उनमें राजा पुरूरवा के दूसरे पुत्र अमावसु की वंशावली में ‘जह्नु’, ‘आयु’ के प्रपौत्र ‘शौनक ऋषि’ हुए | ‘धन्वंतरि’; धन्वंतरि की वंशावली में ‘राजा दिवोदास’, दिवोदास; की वंशावली में ‘सुदास’, ‘प्रतर्दन’, ‘अलर्क’ और ‘मार्गभूमि’ आदि हुए। मार्गभूमि से ही आगे धर्म का प्रचार हुआ।

लाखों वर्ष पुरानी गौरवमयी परम्परा

पौराणिक युग में ‘चन्द्रवंश’ और ‘सूर्यवंश’ की लाखों वर्ष पुरानी गौरवमयी परम्परा है। वोल्गा के तट पर ‘अस्त्राखान’ नामक एक हिन्दुओं का अग्नि- मन्दिर है । यह कास्पियन सागर के तट पर था। कश्यप ऋषि के नाम से ही इस सागर का यह नाम पड़ा था।

पुराणों में अत्रि का अर्थ ‘धर्म’ भी कहा जाता है। ये अत्रि ऋषि आर्यों के एक कबीले के स्वामी थे। उनके पास प्रचुर मात्रा में पशुधन था। उनकी वसु नामक स्त्री से आठ व उत्पन्न हुए थे ।

इन आठ वसुओं में ‘चन्द्र’ द्वितीय वसु थे। इन वसुओं के भी अपने- अपने कबीले थे, जो ‘ऐल’ नाम से पुकारे जाते थे। इन लोगों ने तिब्बत (त्रिविष्टप) के पठार को पार कर हिमालय की घाटियों में प्रवेश किया था और नीति दर्रे से होकर वाराहोती क्षेत्र में ये आये थे। इन ‘ऐल’ कबीलों में सर्वाधिक शक्तिशाली कबीला चन्द्रमा का था।

चन्द्रमा को वनस्पतियों का अच्छा ज्ञान था । यहाँ की वनस्पति-सम्पदा और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर ये यहीं रुक गए। चन्द्रमा ने गंगा घाटी तक अपना प्रभाव विस्तृत करके ‘चन्द्रवंश’ की नींव डाली थी। इस वंश में अनेक शक्तिशाली राजा हुए। स्वयं चन्द्रमा भी अत्यन्त तेजस्वी और शक्तिशाली राजा था। 

मनु ने चन्द्र के महान गुणों का बाखन इस प्रकार किया है-

“सोऽग्नर्भवति वायुश्चसोऽर्कः सोमः सद्यर्मराट् ।
स कुबेरः स वरुणः स महेशः प्रभावतः ।। “

— (मनुस्मृति 7/7)

अर्थात् वह राजा अपनी शक्ति के प्रभाव से अग्नि रूप है| वायु रूप है, सूर्य रूप है, चन्द्र रूप है, धर्मराज यम रूप है, कुबेर रूप है, वरुण और इन्द्र रूप है।  भाव यही है कि ‘चन्द्रवंश’ के आदि पुरुष महाराज ‘चन्द्र’ ने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं गुणों से साक्षात् चन्द्रमा के समान स्वयं को प्रकाशित किया था।

चन्द्रवंश की राजधानी प्रतिष्ठानपुर

चन्द्रवंश की राजधानी प्रतिष्ठानपुर (वर्तमान पूसी) थी। इस वंश में बुध, पुरूरवा, नहुष, ययाति, यदु, हैहय, कृतवीर्य, सहस्रार्जुन, कृष्ण और पाण्डव जैसे धर्मवीर, शक्तिशाली, प्रतापी और दानी राजा हुए हैं| जिनकी कीर्ति आज भी सर्वत्र व्याप्त है | यह भी कहा जाता है कि चन्द्रवंश के आद्य पुरुष महाराज चन्द्र के राज्याभिषेक के अवसर पर सर्वप्रथम वेदमंत्रों का प्रयोग किया गया था । ‘चन्द्रवंश’ के लिए यह गौरव की बात है ।

ययाति का बड़ा पुत्र यदु बड़ा प्रतापी राजा था, ‘यदुवंश’ इसी से चला था । ययाति के सबसे छोटे पुत्र पुरु से ‘पुरुवंश’ चला था, यदु के चार पुत्र हुए- ‘सहस्रजित’, ‘क्रोष्टु’, ‘नल’ तथा नहुष इनमें सहस्रजित के तीन पुत्र हुए- ‘हैयम’ ‘हेयय’ ‘हेयय’ और ‘वेणुहय’ । 

मथुरा प्रसाद वर्मा ने ‘हैहय वंश की गौरव गाथा’ (प्रथम खंड) में चन्द्रवंश के विस्तार पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि दक्ष कन्या रोहिणी से चन्द्रवंश के आदि पुरुष चन्द्रमा हुए थे। चन्द्रमा के ‘बुध’ नामक पुत्र हुए। वैवस्वत् मनु की पुत्री इला से बुध का विवाह हुआ था । इला से ‘पुरूरवा’ का जन्म हुआ। पुरूरवा ने गन्धर्व कन्या उर्वशी से विवाह किया।

उर्वशी से ‘आयु’, ‘ धीमान्’, ‘अमावसु’, विश्वायु’ ‘शतायु’ और ‘गतायु’ छह पुत्र हुए। पुरूरवा के पुत्र आयु से ‘नहुष’ व चार अन्य पुत्र हुए। 

राज नहुष और उनका पुत्र ययाति  

नहुष अत्यन्त प्रतापी राजा था। उसने देवताओं को जीतकर इंद्रासन प्राप्त कर लिया था। परन्तु उच्च पद पाकर वह मदोन्मत हो उठा। उसने इन्द्र की पत्नी शचि से बलपूर्वक सम्बन्ध बनाना चाहा तो शचि ने उससे कहा कि वह सप्त ऋषियों की पालकी में सवार होकर उसके पास आए तो वह उसकी इच्छा पूरी कर सकती है।

राजा नहुष ने ऐसा ही किया । परन्तु ऋषि लोग पालकी उठाकर धीरे-धीरे चल रहे थे। तब उन्हें तेज चलने के लिए कहने के लिए राजा ने उनसे ‘सर्प – सर्प’ (जल्दी चलो) कहा। तब उन ऋषियों ने क्रोधित होकर उसे शाप दे दिया कि ‘जा, तू सर्प हो जा’ । राजा नहुष शाप के कारण साम्राज्य से पदच्युत होकर वन में चला गया और वहाँ नागवंशियों के मध्य रहने लगा।

राजा नहुष के बाद उनका पुत्र ‘ययाति’ राजा हुआ। वह बड़ा धर्मात्मा राजा था। वह दान-पुण्य करने के कारण प्रजा में अत्यन्त लोकप्रिय था । वह अपने पुत्रों से कहा करता था – (1) किसी से बदला न लो, (2) नीच युक्तियों से शत्रु का दमन मत करो (3) किसी के आगे हाथ न फैलाओ।

अनेक गुणों के होते हुए भी ययाति अभिमानी था। उसने शुक्राचार्य की कन्या ‘देवयानी’ और दैत्यराज वृषपर्वा की कन्या ‘शर्मिष्ठा’ से विवाह किया था। देवयानी से ‘यदु’ और ‘तर्वसु’ दो पुत्र हुए और शर्मिष्ठा से ‘अनु’, ‘दुहयु’ और ‘पुरु’ तीन पुत्र हुए।

ययाति की यौवन आकांक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी थी । वृद्धावस्था आने पर – उसने अपने पुत्रों से यौवन माँगा । परन्तु पुरु के अलावा किसी ने भी उसे यौवन नहीं दिया। यायति ने पुरु को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। परन्तु प्रजा के विरोध करने पर ययाति ने अपने सभी पुत्रों में अपना राज्य बाँट दिया।

अपने अन्तिम समय में ययाति ने कहा था- 

“न जातुकामः कामनामुपभोगेन शाम्यति । 
हविषा कृष्णा वर्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। “

– (मनुस्मृति 2/97)

अर्थात् विषय-भोग की अभिलाषा, भोगों के भोगने से कभी शान्त नहीं होती। जैसे आग में घी और हवन की आहुति देने से आग और भी भड़कती है, उसी प्रकार कामवासना की पूर्ति, अभिलाषा को और भी ज्यादा भड़कती है।

ययाति के प्रथम पुत्र यदु से ही ‘यदुवंश’

ययाति के प्रथम पुत्र यदु से ही ‘यदुवंश’ का प्रदुर्भाव हुआ था, इन्हें ययाति के राज्य का दक्षिण-पश्चिम भाग प्राप्त हुआ था। उनकी भेंट सूर्यवंशी हर्यश्व से हुई। हर्यश्व ने यदु की दृढ़ता और साहस को देखकर उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया और उसे अपना राज्य भी सौंप दिया। 

यदु ने अपने पराक्रम से राज्य का विस्तार किया। उसने नाग जाति के राजाओं से सन्धि कर ली और उनके सहयोग से पश्चिमी समुद्र तट तक अपना साम्राज्य फैला लिया ।

यदु के पाँच पुत्र हुए- ‘पद्मवर्ण’, ‘मुचकुन्द’, ‘माधव, ‘सरस’ और ‘हरित’। ये पाँचों पुत्र नाग – कन्याओं से थे । परन्तु यदु की क्षत्रिय रानियाँ भी थींउनसे भी यदु के पाँच पुत्र थे- ‘सहस्रजित’, ‘क्रोष्टा’, ‘पयोद’, ‘नील’ और ‘अंजिक’ । इनमें सहस्रजित और क्रोष्टा के वंशज ही प्रसिद्ध हुए हैं । 

राज हा परम यशस्वी और सहस्त्रजित के इसी वंश में आगे चलकर ‘सहस्त्रार्जुन’ ने जन्म लिया था और क्रोष्टा के वंश में भगवान श्रीकृष्ण’ ने जन्म लिया था। ‘यदु-वंश’, ‘चंद्र-वंश’ की सर्वाधिक प्रसिद्ध शाखा थी। कौरव-पांडव और कृष्ण तथा सहस्रार्जुन का जन्म इसी शाखा में हुआ था । 

यदु के पुत्र ‘सहस्रजित’ का पुत्र ‘शतजित’ हुआ। उसके तीन पुत्र – ‘हैहय’, ‘महाहय’ और ‘वेणुहय’ हुएये तीनों धर्मात्मा और शक्तिशाली थे। इनमें भी ‘हैहय’ सबसे अधिक प्रतापी, बलवान, तेजवान, नीति-निपुण और प्रजापालक राजा थे| इनकी दस रानियों से सौ पुत्र हुए थे। सभी धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण थे । ‘यदु’ के कारण यदि ‘ यदुवंश’ प्रसिद्ध हुआ तो ‘हैहय’ के कारण ‘हैहय वंश’ – का नाम इतिहास में सार्थक हो उठा |

सुनिए हैहय वंशावली परिचय भाग एक

LATEST POSTS

हैहयवंश का उदय “हैहय-कथा” का दूसरा भाग

पहले भाग मे देखा चंद्रवंश का उद्भव, अब हम यह जानेंगे की चंद्रवंश से हैहयवंश का उदय किस प्रकार हुआ | महाप्रतापी कातृवीर्य 'सहस्रार्जुनने जन्म लिया।

Follow us

3,912फॉलोवरफॉलो करें
21,600सब्सक्राइबर्ससब्सक्राइब करें

Most Popular

spot_img