कर्म में है प्रगतिशीलता, वर्ण व्यवस्था के अनुसार क्षत्रिय दूसरे क्रम पर हैं, ये वह वर्ग है जिस पर देश समाज की सुरक्षा का दारोमदार है इस आधार पर क्षत्रिय वर्ण बेहद महत्वपूर्ण है। आज हम देखते हैं देश में सेना की स्थिति सैनिकों का सम्मान सर्वोच्च है। सीमाओं पर बनने बिगड़ने वाली स्थितियों के कारण सेना का महत्व हमेशा रहा है और लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

यह तो नहीं पता कि किस देश काल परिस्थिति ने हैहयवंशी क्षत्रियों को बर्तन व्यवसाय से जोड़ा लेकिन मेरे एक पत्रकार मित्र ने चर्चा ने बताया कि राजा महाराजाओं के काल में किसी भी तरह के शिल्पकारों का बहुत ज्यादा महत्व था। मेरे इन मित्र ने भारत सरकार के अनुबंध में पूरे देश में शिल्पकारों का अध्ययन किया था और पाया था कि सभी की स्थिति अभी दयनीय है। उनसे लंबी चर्चा में उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ में राज्य की राजधानी में सभी शिल्पकारों को रहने और कार्य करने के लिए स्थान उपलब्ध करवाया जाता था जिसमें लुहारों का स्थान सर्वोपरि था इसके बाद ताम्रकार कांस्यकार कुम्भकार चर्मकार और फिर स्वर्णकार आते थे। लुहार चूँकि देश की रक्षा के लिए हथियार बनाते थे इसलिए सबसे महत्वपूर्ण थे।

मशीनीकरण के दौर में शिल्पकारों का महत्व कम हुआ

राज पाट खत्म हुए और मशीनीकरण के दौर में शिल्पकारों का महत्व भी कम हुआ। धीरे-धीरे ये हाशिये पर चले गये क्योंकि इनमें महत्ता की दौड़ के कारण फूट पड गई और ये बिखरते चले गये। इनमें फूट डालने का कुछ काम राजनीतिक दलों ने किया तो कुछ समाज संगठनों ने जिन्होंने अपनी जाति की महत्ता और खुद को केंद्र में रखने के लिये स्वयं को अन्य शिल्पकार समूहों से काट लिया। कालांतर में सोने का काम करने वाले सर्वश्रेष्ठ और लोहे का कार्य करने वाले सबसे निचले स्तर पर बैठा दिये गये।

इससे भी दिल नहीं भरा और धीरे-धीरे हर शिल्पकार वर्ग में भी उपवर्ग हो गये और अनेक संगठन खड़े हो गये जिन्होंने देखा जाये तो समाज के लिए कुछ नहीं किया। वर्तमान में समाज संगठनों ने सिर्फ अपने नाम में क्षत्रिय लगाया हुआ है जबकि कर्म के अनुसार देखा जाये तो ऐसा कोई कार्य नहीं हो रहा है जो इसे सार्थक करता हो।

वास्तव में तो वर्ण के के अनुसार ब्राह्मण का कार्य अध्ययन अध्यापन वैश्य का व्यवसाय और शूद्र वर्ण के इतर सभी कार्य होते थे। इसमें भी क्षत्रिय वर्ण न सिर्फ अस्त्र शस्त्र की शिक्षा लेता था बल्कि राज्य चलाने के लिए समुचित ज्ञान अर्जित करने के लिए गुरुकुल में जाकर अध्ययन भी करता था। इस लिहाज से क्षत्रिय वर्ण श्रेष्ठ माना जाता है जो अध्ययन भी करता है और अस्त्र शस्त्र की शिक्षा भी लेता है। 

आज हम खुद को हैहयवंशी क्षत्रिय कहते हैं कुछ लोगों ने तो अपने नाम के आगे इसे लगा लिया है तो कुछ लोगों ने इसे जयकारे का रूप दे दिया है बिना यह सोचे कि वे कब कहाँ इस नाम इस वर्ण को सार्थक करते हैं।

युवाओं को भटकाया जा रहा है

समाज के युवाओं पर अगर नजर डालें तो कितने युवा सेना पुलिस या अन्य रक्षा संबंधी संस्थानों में भर्ती होकर देश की सेवा कर रहे हैं? जबकि अन्य जातियों में जो शायद ही कभी अपने जाति नाम वर्ण या वंश की चर्चा करती हैं वे आज भी सेना पुलिस सीमा सुरक्षा बल में महत्वपूर्ण पदों पर तैनात हैं वे रक्षा संबंधी योजना बनाते हैं और निर्णय भी लेते हैं। हमारे युवाओं का एक बड़ा वर्ग अभी भी समुचित शिक्षा से वंचित है बल्कि कहते हुए अफसोस होता है कि धर्म और संस्कृति के नाम पर अनुत्पादक क्षेत्र में झोंका जा रहा है। 

सोशल मीडिया पर विभिन्न जातियों के फेसबुक पेज पर कभी-कभार भ्रमण करती रहती हूँ और पता चलता है कि कई ऐसे समाज और जातियाँ जिन्हें खुद से निकृष्ट माना जाता है वे कितने रचनात्मक कार्यों में लगे हुए हैं। समाज के युवा महिलाओं लड़कियों के लिए रचनात्मक कार्यशाला करते हैं समाज के समारोहों में उन्हें अपनी प्रतिभा और व्यापार के विस्तार के लिए मंच उपलब्ध करवाते हैं छात्रों के लिए विभिन्न विषयों में पढ़ाई और नौकरी की संभावनाओं की जानकारी देने के लिए शिक्षा जगत के एक्सपर्ट को बुलाकर सेमिनार करवाते हैं तो नौकरी या व्यवसाय करने वालों के लिये व्यवहार गत या व्यवसाय गत जानकारी उपलब्ध करवाते हैं। 

वहीं हैहयवंशी क्षत्रिय समाज के कुछ फेसबुक पेज पर जाना हुआ जहाँ सिवाय जयकारे पूजा-पाठ देवी-देवताओं के फोटो और स्तुतियों के कुछ नहीं मिला। कहीं इक्का-दुक्का रचनात्मक खबरें होती भी हैं तो नजरअंदाज कर दी जाती हैं। 

युवा वर्ग में एक बहुत गहरी खाई

हमारे युवा वर्ग में एक बहुत गहरी खाई है। एक वह वर्ग है जो खूब पढा लिखा है और अपने लक्ष्य तय कर सतत आगे बढ़ रहा है। यह वर्ग अपने विकास के लिए समाज पर कतई निर्भर नहीं है और उसे जहाँ से भी सीखने को मिलता है वह सीखता है फिर चाहे वह इंटरनेट हो या अपने सहपाठी कलीग अडोसी पडोसी या अन्य। इस युवा वर्ग के पास एक बेहद विस्तृत नजरिया है चीजों को देखने समझने और उसे डील करने का। यह ज्यादा व्यवहारिक और आधुनिक है। आधुनिक का तात्पर्य यहाँ संस्कार विहीन होना नहीं है। इस पीढी के पास अपने संस्कार हैं अपने माता-पिता के प्रति सम्मान और जिम्मेदारी है रिश्तों के प्रति प्रेम भी है और समाज के हर वर्ग के प्रति संवेदना भी है। बस ये वर्ग जीवन या समाज का अर्थ विस्तृत रूप से लेता है और दूसरों से सीखता है उनकी अच्छी बातों को अपने जीवन में समाहित करता है। बिना किसी पक्षपात के बुरी चीजों का विरोध करता है या उन्हें नकार देता है। (विडंबना है कि इस युवा वर्ग को दूसरा वर्ग आत्मकेंद्रित या संस्कारहीन कह कर खारिज करते हुए खुद का महत्व स्थापित करने की कोशिश में लगा रहता है।) 

दूसरा युवा वर्ग है जो ज्यादा पढा लिखा नहीं है जिसने या तो अपनी स्कूली शिक्षा भी बमुश्किल पूरी की है या बस जैसे तैसे डिग्री हासिल की है जबकि उनके पास इस डिग्री के अनुरूप ज्ञान नहीं है। इस वर्ग को संस्कारों के नाम पर बहकाना  जाति बोध करवाते हुए आभासी गर्व से भरना कुंए का मेंढक बनाए रखना बहुत आसान है। समाज का यह बड़ा युवा वर्ग अपने क्षत्रियत्व को छोड़कर पूजा-पाठ जयकारे स्तुतियों में लगा हुआ है या लगाया जाता है। 

कोई मुझे बताए कि क्षत्रिय कर्म छोड़कर घंटे घड़ियाल बजाने वाले कब से और क्यों हो गये? क्षत्रिय कर्म को पूजा मानते हैं और कर्म ही सर्वोपरि है। मैंने रामायण पढी महाभारत की भी जानकारी है भरत शांतनु परीक्षित जैसे क्षत्रिय महाराजाओं को जाना कोई दैनिक पूजा ध्यान के अलावा घंटे घडिय़ाल बजाता चित्रित नहीं किया गया। उनकी भक्ति ध्यान में है जिससे उन्हें शक्ति मिलती है वे कर्मकांड नहीं करते। वे यज्ञ करते रहें हैं लेकिन वह हर एकादशी पूनम अमावस्या पर नहीं होता था जीवन में एक बार होता था और आवश्यक होने पर शक्ति प्रदर्शन के लिए जरूरी होता था। 

हैहयवंशी क्षत्रिय के इस युवा वर्ग को कौन कर्म विमुख करके शंख घंटी बजवा रहा है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। हाँ इस पर चिंतन करने की आवश्यकता जरूर है कि क्या हम ‘ये’ हैं? क्या हम अपनी पीढ़ी को यही बनाना चाहते हैं? अपने इतिहास की जानकारी होना और अपने इतिहास से चिपके रहकर वर्तमान में कर्म को दरकिनार करना कितना उचित है? क्या वास्तव में यह क्षत्रिय कर्म है? 

युवाओं को कोई प्रगतिशील दिशा नही दिखा पाए

समाज का यह युवा वर्ग इसके अलावा एक अन्य क्षेत्र में झोंका जा रहा है और वह है शादी-ब्याह। विडंबना है कि समाज का शताब्दी समारोह मनाने के बाद भी हम न कोई रचनात्मक सोच रख पाए हैं और न युवाओं को कोई प्रगतिशील दिशा दिखा पाए हैं। सोशल मीडिया पर मैंने अपने समाज की कुछ युवा लेखक लेखिकाओं की कहानियाँ पढीं। जानकर बेहद क्षुब्ध हुई कि उनके पास समाज की विसंगतियों को देखने सुनने समझने की कोई क्षमता नहीं है। उनकी कहानियों के विषय सिर्फ शादी हैं या वे स्तुति गान करती रचनाएँ लिख रही हैं। 

मेरे अनुसार यह समाज के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति है कि एक बड़ा युवा वर्ग शादी पूजा आरती और सदियों पहले बीत चुके इतिहास को पकड़े बैठा है वह मानसिक वैचारिक रचनात्मक रूप से ठहर गया है जैसे किसी खूंटे से बाँध दिया गया हो जिसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाना ही जीवन है और आगे बढ़ने की कोई राह उसे सूझ नहीं रही है। जरूरी है कि इन स्थितियों पर विचार किया जाये। 

कर्म विचारवान होना चाहिये वर्तमान और भविष्य आधारित होना चाहिए

समाज में शिक्षा के लिए सोच ही तब शुरू हुई जब मैंने अपनी पूजनीय सासु माँ के नाम से योग्य बालिका के लिए स्कालर शिप योजना के लिए एक विज्ञप्ति दी जिसे कई संगठनों ने हाथों हाथ लिया एक संगठन में एक कमेटी बनी जिसमें मैं शामिल थी और उसमें चार महीने बाद भी कोई निर्णय नहीं हुआ। जब आपत्ति ली गई तो उल्टा आरोप लगा कि मैं समाज के लिए कार्य करना नहीं जानती (क्योंकि ये लोग लेखन को विचार को समाज को राह दिखाने को समाजसेवा नहीं समझते) जबकि वहाँ खुद की वाहवाही के लिए माहौल बनाने की कोशिश लगातार हो रही थी जिसमें मैं सबसे बड़ी बाधा थी। 

ऐसे में कमेटी से अलग होना श्रेष्ठ था। यह इसलिए लिखना पड़ा ताकि सनद रहे कि अब मैं कमेटी का हिस्सा नहीं हूँ और समाज को जानकारी मिले कि अगर वे समाज संगठनों की दिखाई राह जोह रहे हैं तो वे वास्तव में कहीं नहीं पहुंचते। समाज को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रगतिशील विचार और उन पर अमल ही निभाएंगे। 

आभासी प्रचार आभासी गौरव जयजयकार को समाज का प्रतिनिधित्व समझने की प्रवृत्ति को सख्ती से दूर किये जाने की आवश्यकता है ताकि समाज खुल कर सांस ले सके आगे बढ़ सके और वास्तविक प्रगति कर सके। ऐसी प्रगति कर्म से संभव है यह कर्म विचारवान होना चाहिये वर्तमान और भविष्य आधारित होना चाहिए। 

कविता वर्मा

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