युवा भारत को विश्वगुरु बनेंगे

युवा भारत को विश्वगुरु बनेंगे, हैहयवंशीय छत्रिय समाज की एकमात्र डिजिटल पत्रिका विमर्श के नए स्तंभ “युथ प्रेरणा” में जिसकी शुरुआत आजादी के 75 वर्ष के उपलक्ष में युवाओं को प्रेरित करने के नेक उद्देश्य से की जा रही है। आज जब हम भारत की आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर अमृत महोत्सव मना रहे है, तो हमे यह ध्यान रखना होगा कि भारत एक युवा देश है, जिसकी 62% आबादी 50 वर्ष से कम उम्र की है और उसमे भी 54% तो 25 वर्ष से भी कम उम्र के है।

ऐसे में इन आकड़ो से साफ जाहीर है कि युवा ही भारत को विश्वगुरु बना सकते हैं और हमारे समाज का युवा तो बड़ा योग्य है, बड़ा मेहनती है,  सामर्थ्यवान भी है और कई संभावनाओं से भरा हुआ है बस आवश्यकता है तो सही प्रेरणा की डिजिटल पत्रिका विमर्श का यह स्तंभ समाज के युवाओं को समर्पित है। विमर्श की यह सेवा भावी पहल अत्यंत सराहनीय है जिसमे विमर्श डिजिटल पत्रिका ने “यूथ प्रेरणा” के इस स्तंभ की जिम्मेदारी मुझे सोप कर कृतार्थ किया हैं, मैं कोशिश करूंगा कि इसके साथ न्याय कर सकूँ, आज के इस अंक में युवाओ की जीवन दिशा सत्कर्मो, नैतिकता और निःस्वार्थ कर्म के माध्यम से स्वार्थ नहीं बल्कि परमार्थ हो, इसे हम आइए भारतीय अध्यात्म दर्शन से समझने का प्रयास करते है।

भारतीय अध्यात्म दर्शन

धर्म (जीवन जीने का तरीका अथवा जीवन शैली), अर्थ (धन और समृद्धि), काम (इच्छाओं या अभिलाषा) और मोक्ष (निर्वाण) के स्तंभों पर, और वेदों, स्मृति (विशेषकर मनुस्मृति), और दो महाकाव्यों – रामायण और महाभारत सहित अन्य धार्मिक साहित्यों की शिक्षाओं पर आधारित है।

भारतीय परंपरा के अनुसार धर्म जीवन का एक तरीका है और इसे मात्र एक अनुष्ठान या प्रार्थना के साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। जैसा कि मनुस्मृति में परिभाषित किया गया है, धर्म एक व्यक्ति के लिए आवश्यक दस नैतिक मूल्यों को निर्धारित करता है :

‘धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिनद्रियनिग्रहः।

धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।’

धर्म के दस तत्व हैं:

‘धृति’ (धैर्य), ‘क्षमा’ (माफ करना), ‘दम’ (इच्छाओं पर नियंत्रण की क्षमता), ‘अस्तेय’ (चोरी न करना), ‘शौच’ (शारीरिक और आध्यात्मिक पवित्रता), ‘इंद्रियनिग्रह’ (इंद्रियों पर नियंत्रण), ‘धी’ (बुद्धि), ‘विद्या’ (शिक्षा और यथार्थ ज्ञान), ‘सत्य’ (सच्चाई), और ‘अक्रोध’ (क्रोध प्रबंधन, शांत रहना)।

ये दस तत्व भारतीय अध्यात्म दर्शन में नैतिकता का आधार बनते हैं और इसके घटकों के मौलिक स्वभाव पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। इन शास्त्रों में इनकी मूल्य प्रणालियों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों, दृष्टिकोण और व्यवहार, कार्य नैतिकता और सामान्य जीवन प्रबंधन से संबंधित कई विवरण हैं।

‘कर्म’ (कार्य) भारतीय अध्यात्म दर्शन और गीता से प्राप्त शिक्षा की मुख्य विशेषताओं में से एक है।

“कर्मण्येवाधिकारस्तेमा फलेशु कदाचन्” (व्यक्ति को अपने कर्म करने का अधिकार है लेकिन उस कर्म के फलों पे नहीं) की अक्सर विद्वानों द्वारा अनुचित व्याख्या की गई है। कानूनगो (1990) ने इसे असहायता की व्यक्तिगत नैतिकता से जोड़ा और अनुमान लगाया कि हमें यह वातावरण के प्रति एक निष्क्रिय दृष्टिकोण की ओर ले जाता है। हालाकि दर्शन वैराग्य और निस्वार्थ भाव के साथ कर्म पर भी केन्द्रित है, जहां कर्म के फल सार्वजनिक लाभ और मानवीय मौलिक कर्तव्यों के लक्ष्यों के अधीन होते हैं।

वास्तव में, इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में बेबसी और विवशता की अवधारणा को स्पष्ट रूप से नकारते हुए कहा गया है, ‘मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि (आप कर्म के फल के लिए कर्म न करें अपितु इसलिए करे, क्योंकि वह सही कर्म है, और न ही आपको निष्क्रिय होने का अधिकार है)। रिहम ने अपने एक शोध में इस विचार को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए सुझाव दिया है कि भारतीय अध्यात्म दर्शन कर्म को ब्रह्मांड में सभी रचनाओं की जीवन शक्ति के रूप में मानता है। उन्होंने भारतीय आध्यात्म दर्शन में वर्णित सभी चीजों को एक दूसरे पर निर्भर और अविभाज्य भागों के रूप में ब्रह्माण्ड के तत्वों के रूप में तुलना की है। इसके साथ ही उन्होंने कॉर्पोरेटया निगमित संदर्भ में भी इसकी तुलना की है – एक निगम या संगठन में भिन्न विभागों को समग्र प्रभावशीलता प्राप्त करने हेतु एकजुट होकर कार्य करना पड़ता है।

इसी प्रकार,समय परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ में कर्म के दर्शन की व्याख्या में वर्तमान के बजाय अतीत पर जोर दिया गया है, वह त्रुटिपूर्ण है क्योंकि दर्शन स्पष्ट रूप से वर्तमान के महत्व के बारे में बात करता है और अतीत में रहने या सोचने की प्रक्रिया को निष्क्रियतामान कर अस्वीकार करता है। साथ ही, भारतीय अध्यात्म दर्शन के सभी ग्रंथ अपने संदर्भो में पुरुषों और महिलाओं की समान भागीदारी पर जोर देते हैं।

‘उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।

सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥’ (ऋग्वेदः 1/126/7)

(जैसे आप अपने राज्य के पुरुषों के लिए निर्णय लेते हैं, वैसे ही मैं अपने राज्य की महिलाओं के लिए निर्णय लेने की क्षमता रख सकती हूं) उच्चतम स्तरों पर निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी की सीमा को पर्याप्त रूप से प्रदर्शित करता है। एक प्रमुख की भूमिका का भी गंभीर आंकलन किया जाता है:

‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।’ (महाभारतः 3/59)

( यह महत्वपूर्ण है कि प्रमुख अपने व्यवहार का विशेष ध्यान रखें क्योंकि अन्य लोग उनका अनुसरण करते हैं)। इन सभी नैतिक और व्यवहारिक पहलुओं का आज के अतिआधुनिक वातावरण में भी सभी जनों, मूल संगठनों और उनके कामकाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

प्रेरणा : आज के अत्याधुनिक होते माहौल में भी यदि हम अपने जीवन को भारतिय आध्यात्म दर्शन में बतलाये हुए उच्च जीवन मूल्यों पर सिंचित करते है तो हम यह भी सुनिश्चित करते है कि हमारा न सिर्फ हमारा यह जीवन सुखमय हो सकता है अपितु हम अपने संपर्क में आने वाले कई सैकड़ो लोगो को भी मार्गदर्शन दे करके उनके भविष्य को भी उज्ज्वल बनाने में भूमिका अदा कर सकते है।

साभार,

सागर कसेरा

डायरेक्ट, सीईओ सियागो सर्विसेज प्रा. ली. | सामाजिक कार्यकर्ता व प्रेरक